बिलासपुर/छत्तीसगढ़
राजस्व विभाग में एक हल्के में एक पटवारी को बैठाया जाता है ताकि वो उस क्षेत्र की संपूर्ण जरकारी रख पाए
और बहुत से हल्के में तो पटवारी के साथ साथ कोटवार भी रहते है, इसके पश्चात 5 से 7 हल्के के ऊपर एक तहसीलदार/अतिरिक्त तहसीलदार या नायब तहसीलदार भी होते है जो अपने सभी पटवारी पर नजर रखते है ताकि कोई गड़बड़ी न हो पाए। परंतु इसके बाद भी कैसे धड़ल्ले से सरकारी जमीन पे कब्जा/ विक्रय या कोटवारी भूमि का विक्रय हो जाता है। और कैसे इनको पता नही चल पाता जबकि सारे जमीनों का दस्तावेज इनके पास होता है। जब एक पत्रकार को पता चल सकता है कि कहाँ का सरकारी भूमि या कोटवारी भूमि बिक गया है तो फिर इनको कैसे पता नही चल सकता है। क्या कारण है कि इस पर बिना शिकायत किये ये रोकथाम की कार्यवाही नही करते। क्या ये इनके कार्यशैली पर शंका पैदा नही करता।
खैर आपको पिछले माह के एक और कारनामे के बारे में बताता हूँ।
बिलासपुर तहसील के नगर निगम में नदी उस पार एक हल्के में कोटवारी जमीन बिक गई है। लगभग 94 डिसमिल जमीन जो की पूर्व में कोटवारी भूमि के रूप में दर्ज थी जिसे राजस्व विभाग के आँखों मे धूल झोंक कर शहर के दो प्रमुख व्यवसायी और नेता द्वारा अपने नाम करा ली गई और पिछले माह उस जमीन को रायपुर के एक बिल्डर द्वारा खरीद लिया गया है जबकि छत्तीसगढ़ शासन का आदेश है जितनी भी कोटवारी भूमि है उसका पुनः सरकारी भूमि के रूप में इंद्राज किया जाना है। चूंकि वर्तमान राजस्व अभिलेखों में उक्त भूमि कहीं भी कोटवारी भूमि दर्ज नही है तथा पटवारी के पास भी ऐसा कोई अभिलेख नहीं है जिसमे की वह कोटवारी भूमि के रूप में दर्ज हो। इसका फायदा उठाकर वर्तमान राजस्व अधिकारियों की आंखों में धूल झोंककर इसे महंगे दाम में विक्रय किया गया। हालांकि पूर्व में भी हमारे न्यूज़ द्वारा खबर लगा कर राजस्व विभाग को सूचित किया गया था, फिर भी राजस्व विभाग से ये चूक कैसे हो गया।
बहरहाल देखते हैं कि राजस्व अधिकारी और जिला कलेक्टर इस पर क्या कार्रवाई करते हैं?
आगे की खबर में इसकी विस्तृत जानकारी एवं साक्ष्य के साथ करेंगे बड़ा खुलासा…